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December 28, 2020वरलक्ष्मी व्रत हिन्दुओं का पवित्र पर्व माना गया है। वरलक्ष्मी व्रत श्रावण शुक्ल पक्ष के दौरान एक सप्ताह पूर्व शुक्रवार को मनाया जाता है। यह व्रत राखी और श्रावण पूर्णिमा से कुछ ही दिन पहले आता है। ऐसा माना जाता है कि इस व्रत को रखने से घर की दरिद्रता खत्म होती है साथ ही परिवार में सुख सम्पत्ति बनी रहती हैं। वेदों, पुराणों एवं शास्त्रों के अनुसार श्रावण माह के शुक्ल पक्ष की दशमी को वरलक्ष्मी जयंती मनाई जाती है। वरलक्ष्मी व्रत को वरलक्ष्मी जयंती भी कहा जाता है। यह व्रत कर्नाटक तथा तमिलनाडु राज्य में बड़े ही उत्साह से मनाया जाता है।
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार यह व्रत शादीशुदा जोड़ों को संतान प्राप्ति का सुख प्रदान करता है। यह व्रत स्त्रियों द्वारा अति उत्साह से मनाया जाता है। ऐसा माना जाता हे कि इस व्रत को करने से व्रती को सुख, संपत्ति, वैभव की प्राप्ति होती है। इस व्रत का महत्व कई गुणा बढ़ जाता है अगर पति पत्नी द्वारा रखा जाए। इस व्रत को रखने से अष्टलक्ष्मी पूजन के बराबर फल प्राप्ति होती है।
वरलक्ष्मी व्रत के महत्व के बारे में एक बार भगवान शंकर ने माता पार्वती को बताया था कि मगध देश में कुण्डी नाम का नगर हुआ करता था। इस नगर में एक स्त्री चारुमति रहती थी, जो की अपने परिवार की देखभाल के साथ ही एक आदर्श स्त्री का जीवन व्यतीत करती थी। देवी लक्ष्मी चारुमति से बहुत ही प्रसन्न रहती थी। एक बार स्वप्न में देवी लक्ष्मी ने चारुमति को दर्शन देते हुए वरलक्ष्मी व्रत रखने को कहा। चारुमति ने इस स्वप्न के बारे में अपनी सखियों को बताया, यह सुन कर सभी सखियाँ व्रत रखने के लिए राज़ी हुई और उन्होंने भी श्रावण पूर्णमासी से पहले आने वाले शुक्रवार को देवी लक्ष्मी द्वारा बताई गई विधि से वरलक्ष्मी व्रत रखा और पूजा की। पूजन के पश्चात् कलश की परिक्रमा करते ही उन सभी के शरीर विभिन्न स्वर्ण आभूषणों से सज गए, उनके घर भी सोने के हो गए और गाय, घोड़े, हाथी आदि भी आ गए। सभी ने चारुमति की प्रशंसा करते हुए उसे धन्यवाद दिया। कालांतर में सभी नगर वासियो ने इस व्रत को रखा और सभी को समृद्धि की प्राप्ति हुई।
इस दिन महिलाएं प्रातः काल उठ कर घर की सफाई, स्नान-ध्यान से निवृत होकर पूजा स्थल को गंगाजल से पवित्र करती है। माँ लक्ष्मी की मूर्ति को नए कपड़ों, जेवर और कुमकुम से सजाया जाता है, एक पटिये पर गणपति जी की मूर्ति के साथ माँ लक्ष्मी की मूर्ति को रखा जाता है। पश्चात् कलश में पानी भर कर रखते है और चारो ओर चन्दन लगाया जाता है। कलश के पास पान, सुपारी, सिक्का, आम के पत्ते आदि रख कर फिर एक नारियल पर चन्दन, हल्दी, कुमकुम लगा कर उस कलश पर रखा जाता है।
एक थाली में लाल वस्त्र, अक्षत, फल, फूल, दूर्वा, दीप, धूप आदि से माँ लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है। माँ की मूर्ति के समक्ष दिया प्रज्वलित किया जाता है एवं पूजा समाप्त होने के बाद महिलाओं को प्रसाद दिया जाता है। इस दिन व्रती को निराहार रहना चाहिए। रात्रि काल में आरती- अर्चना के पश्चात् फलाहार करना उचित माना जाता है।
पूजन सामग्री:
देवी वरलक्ष्मी जी की प्रतिमा, फूल माला, कुमकुम, हल्दी, चन्दन चूर पॉउडर ,विभूति, शीशा, कंघी, आम पत्र, फूल, पैन के पत्ते, पंचामृत, दही, केला, दूध, पानी, अगरबत्ती, मोली, धूप, कर्पूर, प्रसाद, तेल दीपक, अक्षत का प्रयोग किया जाता है।