
हरियाली तीज का उत्सव श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को महिलाओं द्वारा मनाया जाता है। आस्था, उमंग, सौंदर्य और प्रेम का यह उत्सव शिव-पार्वती के पुनर्मिलन के उपलक्ष्य के लिए मनाया जाता है। हरियाली तीज इसलिए प्रचलित है क्यूंकि यह व्रत से सुहागन अमर सुहाग एवं कुंवारी लड़कियों को अच्छे व मनचाहे वर की प्राप्ति होती है।
ऐसा कहा जाता है कि माता पार्वती ने भगवान शिव को पति के रूप में पाने के लिए १०७ जन्म लिए और १०८वें जन्म में उन्होंने शिव को पति के रूप में प्राप्त किया, और रोचक बात यह है कि वह समय भी श्रावण मास की शुक्ल पक्ष का ही था । तभी से यह व्रत का प्रारम्भ हुआ। इस उत्सव को मेहंदी रस्म भी कहा जाता है क्यूंकि इस दिन महिलाएं अपने हाथों और पैरों पर विभिन्न कलात्मक रूप से मेहंदी लगाती है और परम्परा अनुसार वे घर के बड़ों का आशीर्वाद भी लेती हैं।
भगवान शिव ने पार्वती जी को उनके पूर्व जन्म का स्मरण करने के उद्देश्य से इस व्रत के महत्व की कथा कही थी-
शिवजी कहते हे कि, ‘हे पार्वती! बहुत समय पहले तुमने हिमालय पर मुझे वर के रूप में पाने के लिए घोर तप किया था। इस दौरान तुमने अन्न-जल त्याग कर सूखे पत्ते चबाकर दिन व्यतीत किए थे। मौसम की परवाह किए बिना तुमने निरंतर तप किया। तुम्हारी इस स्थिति को देखकर तुम्हारे पिता बहुत दुःखी और नाराज़ थे। ऐसी स्थिति में नारदजी तुम्हारे घर पधारे।
जब तुम्हारे पिता ने उनसे आगमन का कारण पूछा तो नारदजी ने बताया की मैं भगवान विष्णु के भेजने पर यहाँ आया हूँ। आपकी कन्या की घोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु उनसे विवाह करना चाहते हैं। इस बारे में मै आपकी राय जानना चाहता हूँ। नारदजी की बात सुनकर पर्वतराज अति प्रसन्नता के साथ बोले कि यदि स्वयं भगवान विष्णु मेरी कन्या से विवाह करना चाहते हैं तो इससे बड़ी कोई बात नहीं हो सकती। मैं इस विवाह के लिए तैयार हूँ।
शिवजी पार्वती जी से कहते हैं, ‘तुम्हारे पिता की स्वीकृति पाकर नारदजी, विष्णुजी के पास गए और यह शुभ समाचार सुनाया। लेकिन जब तुम्हें इस विवाह के बारे में पता चला तो तुम्हें बहुत दुःख हुआ। तुम मुझे यानी कैलाशपति शिव को मन से अपना पति मान चुकी थी।

तुमने अपने व्याकुल मन की बात अपनी सहेली को बताई यह बात सुन कर तुम्हारी सहेली ने एक घनघोर वन में ले जाकर तुम्हे छुपा दिया और वहाँ रहकर तुमने शिवजी को प्राप्त करने कि साधना की। तुम्हारे पिता तुम्हें घर में न पाकर बड़े चिंतित और दुःखी हुए। वह सोचने लगे कि यदि विष्णुजी बारात लेकर आ गए और तुम घर पर ना मिली तो क्या होगा? उन्होंने तुम्हारी खोज में धरती-पाताल एक करवा दिए लेकिन तुम ना मिली। तुम वन में एक गुफा के भीतर मेरी आराधना में लीन थी। श्रावण तृतीय शुक्ल को तुमने रेत से एक शिवलिंग का निर्माण कर मेरी आराधना की जिससे प्रसन्न होकर मैंने तुम्हारी मनोकामना पूर्ण की।
इसके बाद तुमने अपने पिता से कहा, ‘पिताजी! मैंने अपने जीवन का अधिकांश समय भगवान शिव की तपस्या में बिताया है और भगवान शिव ने मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर मुझे स्वीकार भी कर लिया है। अब मैं आपके साथ एक तभी चलूंगी कि आप मेरा विवाह भगवान शिव के साथ ही करेंगे। पर्वत राज ने तुम्हारी इच्छा स्वीकार कर ली और तुम्हें घर वापस ले गए। कुछ समय बाद उन्होंने पूरे विधि-विधान के साथ हमारा विवाह करवाया। भगवान शिव ने इसके बाद बताया, ‘हे पार्वती! श्रावण शुक्ल तृतीया को तुमने मेरी आराधना करके जो व्रत किया था, उसी के परिणाम स्वरूप हम दोनों का विवाह संभव हो सका। इस व्रत का महत्व यह है कि मैं इस व्रत को पूर्ण निष्ठा से करने वाली प्रत्येक स्त्री को मन वांछित फल देता हूँ। भगवान शिव ने पार्वती जी से कहा कि इस व्रत को जो भी स्त्री पूर्ण श्रद्धा से करेगी उसे तुम्हारी तरह अचल सुहाग प्राप्त होगा।

पूजा विधि
सबसे पहले घर की महिलाएं किसी बगीचे या मंदिर में एकत्रित हो कर माँ की प्रतिमा को रेशमी वस्त्र से सजाती हैं । फिर, अर्धगोला बनाकर माता की मूर्ति स्थापित कर माता की पूजा करती हैं। तत्प्श्चात, कथा आरम्भ की जाती है और सब उस कथा को सुनते हुए मन में पति की लम्बी उम्र की कामना करती हैं। कई जगह पर महिलाएं माता पार्वती की पूजा करने के पश्चात् लाल मिट्टी से स्नान करती हैं। ऐसी मान्यता हे कि ऐसा करने से महिलाओं का शुद्धिकरण हो जाता हैं। इस तरह पूजा को संपन्न किया जाता है।